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सुजा॑तो॒ ज्योति॑षा स॒ह शर्म॒ वरू॑थ॒मास॑द॒त् स्वः᳖। वासो॑ऽअग्ने वि॒श्वरू॑प॒ꣳ संव्य॑यस्व विभावसो ॥४० ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सुजा॑त॒ इति॒ सुऽजा॑तः। ज्योति॑षा। स॒ह। शर्म्म॑। वरू॑थम्। आ। अ॒स॒द॒त्। स्व᳖रिति॒ स्वः᳖। वासः॑। अ॒ग्ने॒। वि॒श्वरू॑प॒मिति॑ वि॒श्वऽरू॑पम्। सम्। व्य॒य॒स्व॒। वि॒भा॒व॒सो॒ इति॑ विभाऽवसो ॥४० ॥

यजुर्वेद » अध्याय:11» मन्त्र:40


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी उक्त विषय का उपदेश अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (विभावसो) प्रकाशसहित धन से युक्त (अग्ने) अग्नि के तुल्य तेजस्वी ! (ज्योतिषा) विद्या-प्रकाश के (सह) साथ (सुजातः) अच्छे प्रसिद्ध आप (स्वः) सुखदायक (वरूथम्) श्रेष्ठ (शर्म्म) घर को (आसदत्) अच्छे प्रकार प्राप्त हूजिये (विश्वरूपम्) अनेक चित्र-विचित्ररूपी (वासः) वस्त्र को (संव्ययस्व) धारण कीजिये ॥४० ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। विवाहित स्त्री पुरुषों को चाहिये कि जैसे सूर्य्य अपने प्रकाश से सब जगत् को प्रकाशित करता है, वैसे ही अपने सुन्दर वस्त्र और आभूष्णों से शोभायमान होके घर आदि वस्तुओं को सदा पवित्र रक्खें ॥४० ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(सुजातः) सुष्ठु प्रसिद्धः (ज्योतिषा) विद्याप्रकाशेन (सह) (शर्म) गृहम् (वरूथम्) वरम् (आ) (असदत्) सीद (स्वः) सुखम् (वासः) वस्त्रम् (अग्ने) अग्निरिव प्रकाशमान (विश्वरूपम्) विविधस्वरूपम् (सम्) (व्ययस्व) धरस्व (विभावसो) विविधया भया दीप्त्या सहितं वसु धनं यस्य तत्सम्बुद्धौ। [अयं मन्त्रः शत०६.४.३.६-८ व्याख्यातः] ॥४० ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विभावसोऽग्ने ! ज्योतिषा सह सुजातस्त्वं स्वर्वरूथं शर्मासदत् सीद विश्वरूपं वासो संव्ययस्व ॥४० ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। विवाहितौ स्त्रीपुरुषौ यथा सूर्य्यो भास्वरतया सर्वं प्रकाशते, तथा सुवस्त्रालङ्कारैरुज्ज्वलौ भूत्वा गृहादीनि वस्तूनि सदा पवित्राणि रक्षेताम् ॥४० ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. विवाहित स्त्री-पुरुषांनी जगाला प्रकाशित करणाऱ्या सूर्याप्रमाणे तेजस्वी व सुंदर वस्त्र-आभूषणांनी सुशोभित होऊन घर सदैव निर्मळ ठेवावे.